ज़िंदगी में एक समय आता है जब लकीरें मिट जाती हैं । पाप और पुण्य का भेद ख़तम सा हो जाता है । ज़िंदगी के तूफ़ानी दौर के घाव भर जाते हैं और उसपर नमक का कोई असर नहीं होता।
कुछ चीज़ें काफ़ी व्यक्तिगत होती है लेकिन वो सबों के लिए एक ही जैसी हैं । दुःख , दर्द , पीड़ा , अफ़सोस , आनंद : परिभाषा तो वही है , लोगों की प्रक्रिया अलग अलग ।
एक चीज़ लेकिन ज़िंदगी में ऐसी होती है जिसकी प्रक्रिया भी एक ही जैसी होती है । समझ में आया ?
मैं कोई ऐसा विद्वान नहीं या मानवशास्त्रि नहीं हूँ । कहीं से इस बात
को उधार लेकर इसका मंथन ज़रूर कर रहा हूँ । शायद ही कोई उमंग भरे दिल का आदमी हो जो इस अनुभव से न गुज़रा हो ।
और वो यह कि मनुष्य को पुण्य करने के अवसरों को चुकने का अफ़सोस नहीं होता , दंड विहित पाप करने के अवसरों को चुकने का होता है !
यहाँ पाप का अर्थ देवों के दिए शब्दों का नहीं है ।
ऐसे मौक़े आते है ज़िंदगी में जब उस कर्म में छिपे आनंद ( pleasure) को अस्वीकारना बड़ा कठिन होता है । कोई crime नहीं होता । कोई दंड भी उस काम का नहीं है ।किसी काम में छिपा लबलबाता आनंद को मंद मुस्कान के साथ स्वीकार करना और अनुभव करना एक अजीब अनुभूति है ।
डर सिर्फ़ इस बात का होता है कि कहीं लोग जान ना जायें । अक्सर इस बात को सम्हालने में ( लोग जाने न ) मौक़ा चूक जाता है । ये वही लोग हैं जो जल रहे होते हैं कि " उसकी जगह मैं क्यों नहीं ।" शायद ऐसा मौक़ा उन्हें ख़ुद मिला हो और पाकर वो मन ही मन इतरा भी रहे हों( सफलता मिल गयी, गोल गप्पे पेट में सफ़ेद हो चुके !)
दुनिया की नज़रों में यह ग़लत होता है।
क़ानून की नज़रों में ऐसी बातों का कोई दंड नहीं ।
बरसों बाद , बहुत बरसों बाद जब ज़िंदगी साँस लेती है , फ़ुर्सत की साँस , तब आदमी दुनियाँ की नहीं सोचता , उस पाप को चुकने का सोचता है । ऐसा भी क्या था ! मानव इस दुनियाँ से आनंद विहीन नहीं जाना चाहता । अफ़सोस करता है कि उस नीचे लटके फल को तोड़ कर खा ना सका । पीछे देखता रहा कि कोई देखता ना हो ।
किए गये पुण्य का पलड़ा उतना भारी महसूस नहीं होता जितना आज उस तथाकथित चूके हुए पाप का होता है ।
कुछ ऐसा महसूस किया आपने ? कोई अनुभव ? अभी भी वक़्त है दोस्तों !
Good coffee morning, Namaskar, RC