दर साहेब

दर साहेब की याद आई तो याद आया । आप में से बहुत लोग उनके कार्यकाल में न रहे हों लेकिन सुना ज़रूर होगा । 

बहुत कुछ याद है मुझे लेकिन सबेरा हो रहा है तो वहाँ के PT की याद आती है , क्या pain होता था । यादें तो मधुर हैं लेकिन उस समय अगर कहा जाता कि PT करो , आगे चलकर जीवन में मधुर यादें बनेंगी तो और pain होता ! लेकिन आज सोच कर अच्छा ही लगता है । हमलोग powerless थे । ये नहीं कह सकते कि मेरी स्वाधीनता है , PT नहीं करूँगा ! इस पर तो और दंड मिल जाता ! बताइए ! 

एक बार BK सिन्हा जी से मैंने कहा : PT करवाना ज़रूरी था क्या ? मैं PMCH में था तब और हर रोज़ पहला class miss करता था ( इसको कहते हैं freedom !) . B K Sinha जी तो और भी बेदर्द निकले इस बात में । उन्होंने ने कहा : उनका वश चले तो पूरे देश में सबेरे सबेरे सारी सड़कों को PT ground में बदल दें । बताइए ! मेरे मन पर बज्रपात ! मैंने श्रीमान जी से कहा : अब आज से आपकी बड़ाई बंद !( मेरा उनसे करीबी तालुकात था ) , ख़ैर ! 

तो दर साहेब । कोई teacher PT में न आए तो दर साहेब sub करते थे । half pant में । उनका physical appearance थोड़ा अलग था । ललहुँन पीला रंग , दिमाग़ दबंग पर दिल गीला , ढीला कुछ भी नहीं । उनके पहुँचने पर चाहो तो डर और अनिश्चितता का ऐसा सम्मिश्रण हो कि अपना नाम भी भूल जाएँ ! और यही होता था । PT के बाद वो अचानक किसी आश्रम की pantry में घुस जाते और रात के bin में जिसमें जूठा डालते थे अपना पूरा हाथ कंधे तक डाल कर बेग़ैर निचोड़े हुए निबू निकालें ! हमलोगों को तो काटो तो खून नहीं ! वो तो कहिए कि प्रभारियों का anal tone मज़बूत होता था : बग़ैर selection के समाज के बच्चों की तो नानी लापता हो जाती । दूसरे दिन से प्रभारी निबू check करने लगे । क्या positive effect था ! हमलोग निबू को dustbin में निचोड़ कर फेंकने लगे । 

सोच रहा हूँ बग़ैर ऐसी training के हम लोग जीवन में सफल नहीं हो पाते ! धोखा देना तो नहीं कहेंगे लेकिन ऐसे कारनामे तो हमारी हड्डियों में है । फिर एक सलजम की सब्ज़ी थी । dustbin की सब्ज़ी बोलते थे । आप में से किसी को पसंद हो तो बताइए । आपका नाम diary में दर्ज कर लूँगा सलज़मी style में ! मैं उसी के चलते Epipen लेकर चलता हूँ ! खेल के पहले दूध और सेव । मत पूछिए ! आधे लोगों का दूध तो पड़ा ही रह जाता लेकिन सेव के लिए दौड़ होती थी। : सड़ा हो पर बड़ा हो !और एक bite ले के फेंक दें । दर साहेब का आगमन हो और वो एक दूसरी बाल्टी में आधा खाए सेव को जमा कर आश्रम अध्यक्ष ( त्रिपाठी जी ) के दरवाज़े पर छोड़ दें । खेल से लौटने के बाद त्रिपाठी जी अपनी सुर और लय में लचीले शब्दों में : द र सा हे ब आ ये थे जी , दे खो !

अजीब तमाशा झेला और सीखा । लगता है नेतरहाट में ६ साल नहीं , ६० साल बिताएँ हों । फिर खेल के बाद Chalet से गुजरिए और मोनिका तिरु जी आपको Cod liver oil देंगी ! O ' my God !इतना बेस्वाद लगता था कि सोचूँ डॉक्टर engineer नहीं , film actor बन जाऊँ ! चलिए यहीं खतम करता हूँ । अब आपको पता चला मेरी ज़िंदगी के failure के क्या क्या कारण हैं !

Good coffee morning , Namaskar RC

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मित्र की मौत

ज़िंदगी में एक समय आता है जब दोस्तों के गुज़रने की ख़बर आती है । कुछ दिन पहले तक उनके बच्चों की पैदाइश की खबरें आती थीं ।दिन गुजरते देर नहीं लगती , दिन काटने में कभी भले देर लगे !

किसी के न रहने पर मुझको अब ज़्यादा परेशानी नहीं होती । क्योंकि बहुत कुछ कर पाना सम्भव नहीं होता और स्वीकारना पड़ता है ।

तो जैसे अंधकार में आप किसी से बातें करें । कोई दिख नहीं रहा इसका ये मतलब तो नहीं कि उससे आपका वार्तालाप न हो सके ।

शायद एक कला हो । लेकिन मालूम तो रहता है कि जवाब क्या होगा । सिर्फ़ अंधेरा होता है । आदमी दिखता नहीं । अगर ऐसा नहीं तो फिर तो दिवंगत अजनवी था , दोस्त नहीं !

मानव ने अंधेरे का ठीक से सदुपयोग करना नहीं सीखा ।रौशनी जला देता है । सारा मक़सद भंग !अगर किसी से बातें करनी हो तो रौशनी की ज़रूरत क्या ! आवाज़ सुनिए । क्या दिक्कत है । किसी को देखना क्या ज़रूरी है ।

यूरोप में मैं बहुत सारे संगीत सभा में जाता था । वहीं से सीखा । एक ख़ास टीम होती है जो सिर्फ़ लाइट से ही खिलवाड़ करती है पूरे संगीत के दौरान ।

आपने कभी महसूस किया या इसकी खोज की कि जब लाइट बिलकुल बुझा दी जाती है , घटाटोप अंधेरा , तब लोगों की चीखें बढ़ जाती हैं । उनका संगीत का आनंद आसमान छूने लगता है ! कभी गौर किया ? आवाज़ की बात है , बाजे के तार की तरंग : प्रकाश की क्या ज़रूरत । अंधेरा चाहिए ! सुनना है । देख कर क्या करेंगे ?

कभी आपने अंधेरे में अपने प्रेमी की आहट सुनी । लाइट या प्रकाश की कोई ज़रूरत नहीं । मधुर है इसलिए कि अंधकार है । प्रकाश तो अकसरहाँ गंदगी उजागर कर देता है । नहीं ?

अंधेरेपन की अपनी ख़ासियत है । इसका मोल समझना आसान नहीं । ये अगर crack कर लिया तो कल्याण सम्भव है ।

तो मेरे मित्रों के गुज़रने के बाद जल्दी से दुःख के हाथ साफ़ कर लेता हूँ , प्रकाश में ही सही । काँटे झड़ जाते हैं । लेकिन तब अंधेरे का गुण गाता हूँ । संगीत सुनाई देता है । सुर से सुर मिल जाते और आनंद की चीख सुनाई देती है ।

आदमी दिखता नहीं । बातें तो मगर होती है । कोई भारतीय वैज्ञानिक फूलों से बातें करता था । अरे भाई ये तो कल तक पिस रहा था ज़िंदगी में , आज फूल बन गया तो रोना कैसा । बातें होती रहेंगी । आख़िरकार एक दिन तो हम सब फूल होंगे उसी बाग के ! 

नमस्कार , RC 

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The Uncharted Year

As the dusk sets on the year 2020, one cannot help but dispense wisdom on the merits and demerits that this year has brought upon us.

Years come and years go.For many of us these bygone years leave indelible marks on our memories. Winter, spring, summer, and fall come every year.But what makes each of them worthy of expending our neurons?Some brought us joy, some brought sadness, birth or birthdays, marriage, educational successes, vocational triumphs, medical emergencies, perhaps a memorable vacation.Other than a memorable vacation, most of us can still relate to these emotional roller coasters during 2020.

The unique twist that has taught us to deal with life events is the virus pandemic.Virus, oh yes, the virus, and the challenges it has bestowed upon us.Corona Virus Disease of 2019 – COVID-19.

At the beginning we did not not know how to face this disease.It presented challenges in an uncharted territory. Medical personnel were stumped.Should we go to grocery store? Should we safely pick up the mail from our mailboxes?Should the children go to playgrounds?

As with any upcoming calamity, the first thing that disappears from store shelves is the toilet paper.Either an upcoming snowstorm, or a hurricane, tornado, the front line victim is the toilet paper.Don't we keep extra toilet paper in our cupboards in case we run out?Then why are the shelves empty?This will even boggle Andy Rooney's mind. (Rooney was a commentator on CBS's 60 minutes)

Despite 2020's ups and downs, it has not been a bad year.We have learned many new ways to conduct our lives.A new word has been added to our vocabulary – Zoom. Winners have been companies that provide us with communication technology: video chat has become a norm of conducting our daily professional and personal business.Running to the mall has been replaced by online shopping.We now insist on vendors that provide free shipping.Drive thru business of restaurants have exceeded all imagination.Ask Amazon if they had a good year.

Many countries have printed money as fast as they could.They have flooded the markets to alleviate the victim's blight.Government offering free loans, extending repayment deadlines for loans, rents, mortgages, etc.History books will be written on the wisdom of these unprecedented actions.Despite these desperate measures, the inflicted scars are deep and will be long lasting.

In my humble opinion, the largest victim has been – the personal contact, a hug, a handshake.The human interaction. Family and friends cannot sit and discuss insensible sensible topics.How do you play a game of football without 80,000 fans screaming in bleachers?The adrenaline source.

We humans are a social animal and we must have a social network.Yes, 2020 has given us the new iPhone, SpaceX's successful launches, scientists engineered plastic-eating "super-enzymes" that can break down bottles in days, and much more.But the social web is missing.

I am desperately hoping for the day that this imaginary wall that this pandemic has erected, will be torn down.

Prabhat Kumar

Anand Ashram 1964-70

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अवसर

Reflections

ज़िंदगी में एक समय आता है जब लकीरें मिट जाती हैं । पाप और पुण्य का भेद ख़तम सा हो जाता है । ज़िंदगी के तूफ़ानी दौर के घाव भर जाते हैं और उसपर नमक का कोई असर नहीं होता।

कुछ चीज़ें काफ़ी व्यक्तिगत होती है लेकिन वो सबों के लिए एक ही जैसी हैं । दुःख , दर्द , पीड़ा , अफ़सोस , आनंद : परिभाषा तो वही है , लोगों की प्रक्रिया अलग अलग ।

एक चीज़ लेकिन ज़िंदगी में ऐसी होती है जिसकी प्रक्रिया भी एक ही जैसी होती है । समझ में आया ?

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Change Your Mind

Change Your Mind

कभी कभी मनुष्य के जीवन में ऐसी स्थिति आती है जब मस्तिष्क को नया वस्त्र , नया आवरण देना पड़ता है । नयी दिशा । नीचे का विश्लेषण और उदाहरण शायद अस्पष्टता से दूर करे इस बात को ।आत्मा शरीर छोड़ कर नया घर ढूँढती है : वॉशानसी जीरनानी यदा विहाय ....जिस प्रकार शरीर पुराने वस्त्र छोड़ कर नए वस्त्र अपनाती है ।उसी तरह मनुष्य का मस्तिष्क समय समय पर पुराने ढक्कन , पुराने चादर , पुराने cover या आवरण को छोड़ कर नए विचार धारण करता है । ऐसा ही होना चाहिये और यह एक कला है ।

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