कभी कभी मनुष्य के जीवन में ऐसी स्थिति आती है जब मस्तिष्क को नया वस्त्र , नया आवरण देना पड़ता है । नयी दिशा । नीचे का विश्लेषण और उदाहरण शायद अस्पष्टता से दूर करे इस बात को ।आत्मा शरीर छोड़ कर नया घर ढूँढती है : वॉशानसी जीरनानी यदा विहाय ....जिस प्रकार शरीर पुराने वस्त्र छोड़ कर नए वस्त्र अपनाती है ।उसी तरह मनुष्य का मस्तिष्क समय समय पर पुराने ढक्कन , पुराने चादर , पुराने cover या आवरण को छोड़ कर नए विचार धारण करता है । ऐसा ही होना चाहिये और यह एक कला है ।
इस कला में , इस बदलाव में सब पारंगत नहीं होते । वहीं समस्या खड़ी होती है ।यह नियम शाश्वत है । समाज का चादर भी बदलता है । वस्त्र पुराने हो जाते हैं समाज के भी और समाज नयी चादर ओढ़ता है ।सस्ता और सरल उदाहरण खोजूँ तो : पहले आदमी घर में खाता था और बाहर शौच के लिये जाता था ( अपने यहाँ ), और अब ...।पहले घर की औरतें खाना बनाती थीं शादी में और नाचने वाली बाहर से आती थी , अब खाना बाहर से आता है और घर की औरतें नाचतीं हैं ।दरवाज़े पर आदमी होता था कि कुत्ता ना घुस जाये, अब कुत्ता रहता है कि आदमी ना घुसे !थोड़ा serious होते हैं । मस्तिष्क का आवरण बदलना बहुत ज़रूरी होता है शुभ और सत्य की जीत के लिये ।गीता तो सबने पढ़ी है । मधु रसहीन न हो जाये इसलिये सनछेप करता हूँ ।कृष्ण भगवान का काम अर्जुन के मस्तिष्क को नया वस्त्र देना था । अर्जुन के मस्तिष्क का चादर छीन था।पुराने भावो को छोड़ कर नयी शक्ति अख़्तियार करनी थी । कृष्ण ने अर्जुन की मदद की । गीता का hero कृष्ण नहीं , ना तो अर्जुन है । हीरो आप हैं गीता के । अर्जुन आपका मस्तिष्क है जिसे बदल देता है गीता का उपदेश ।कौरवों का हारना प्राथमिकता नहींथी , अर्जुन का जीतना आवश्यक था । दोनो में फ़र्क़ है । तभी हो सकता था जब अर्जुन के मस्तिष्क का चादर बदले : कृष्ण भगवान का काम । कौरवों को हराना तो अकेले कृष्ण भगवान के लिये सम्भव था । लेकिन अर्जुन ( प्रासंगिक ) को जिताना था उसको सकछम बना कर !!अपने मस्तिक को पुराने वस्त्रों से उबार कर नये और आधुनिक चादर से लपेटिये ।कभी कभी मौक़ा चूक जाता है ।मानव की पहचान इसी में है ।
Good coffee morning, Namaskar, RC