स्वर्गीय सुरेश कुमार झा - एक पितृतुल्य आश्रमाध्यक्ष

श्रीमानजी का व्यक्तित्व विराट और पितृतुल्य था और साथ ही उनमें छोटी-छोटी गलतियों को सहज ही माफ करने की उदात्तता भी थी। वे उस विशाल वटवृक्ष के समान थे, जिसकी विशालता एक ओर तो आकाश को छूती हो और वहीं दूसरी ओर पक्षीगण उसके शाखा-प्रशाखाओं में सहज ही आश्रय पाते हों । उनका ड्राइंगरूम, जिसका एक दरवाजा आश्रम में खुलता था, वह हमारे घर जैसा ही था। ड्राइंगरूम में ही उनके किताबों की अलमारी थी। कालिदास के शुरूआती अनुवाद मैंने वहीं पर पढ़े।

श्रीमानजी ने हमें खूब स्वतंत्रता दी थी जिसका हमने पर्याप्त दुरुपयोग किया। छोटी-छोटी बातों में वे पड़ते नहीं थे, इन्हें आश्रमप्रभारी इत्यादि ही निपटाते थे। श्रीमानजी के आश्रम भ्रमण की एक अनोखी शैली थी। वे प्रायः बाहर-बाहर से ही देख-सुन कर लौट जाते थे । लेकिन जब प्रशांतजी (७०) का आश्रम में उत्पात बढ़ा और श्रीमानजी के पास शिकायत पहुँची तो उनका विशेष निरीक्षण हुआ।

प्रशांतजी, सोनाली बेंद्रे के विशेष प्रशंसक थे और उन्होंने अपने अलमीरा के अंदर खुलने वाले दरवाजे में सोनालीजी की अलग-अलग भाव-भंगिमायों में तस्वीरें चिपका रखी थीं।

श्रीमानजी ने ध्यान से उन तश्वीरों को देखा और बीच -बीच में घूमकर सिर झुकाएँ रुदाली की तरह खड़े प्रशांतजी को देख लेते थे। फिर उन्होंने कठोर दृष्टि से प्रशांतजी को देखा। प्रशांतजी ने सकपका कर उत्तर दिया कि "श्रीमानजी, बस तस्वीरें लगायी हैं, इन्हे देखता नहीं हूँ। "

"बेटा, देखना भी मत," श्रीमानजी का जवाब था, "वरना जीवन बर्बाद हो जायेगा।"

स्वाध्याय में अगर कोई सो रहा है तो उसे जगाने का, उनका तरीका अद्भुत था। जैसे कोई किसी के दरवाजे पर दस्तक दे, ठीक वैसे ही वे अपनी तर्जनी से सोने वाले व्यक्ति के ललाट पर धीरे-धीरे ठक-ठक करते। व्यक्ति ने आँखे खोली और सामने श्रीमानजी।

श्रीमानजी को साल में बस २ बार प्रचंड क्रोध आता, तब जब सेमेस्टर खत्म होने पर आश्रमों की शैक्षिक रैंकिंग निकलती और गौतम आश्रम प्रायः नीचे से दूसरे या तीसरे पायदान पर होता। श्रीमानजी असेंबली से आते और जो सामने दिख जाए, उस पर उनका क्रोध निकालता।

श्रीमानजी के पढ़ाने का एक खास तरीका था। उनको करीब-करीब पूरी किताब ही कंठस्थ थी। कुर्सी पर वे आँख मूँदकर ध्यान मुद्रा में बैठकर, अपने पैर हिलाते हुए, पहले संस्कृत वाला वाक्य पढ़ते और फिर उसका हिंदी में अर्थ बताते। अगर किसी ने कहा कि "श्रीमानजी समझ में नहीं आया" तो उनका उत्तर होता कि "बालक पुनः सुनो"।

श्रीमानजी के विषय में यह धारणा प्रचलित थी कि उन्होंने सिद्धि प्राप्त कर रखी है और २-४ भूत-वूत इत्यादि को अपने नियंत्रण में रखा है। श्रीमानजी प्रायः अपने जन्मदिन पर, जिसमें दूसरे आश्रमों के छात्र भी सम्मिलित होते थे, अपने सिद्धि का छोटा सा प्रदर्शन करते। कुछ घटनाएँ मुझे याद आती हैं।

गौतम आश्रम में हमलोग कभी-कभी दिन के खाने के बाद श्रीमानजी के पास चले जाते। यह श्रीमानजी के आराम का समय था, जिसमें वे बहुत ही सहज और प्रसन्न रहते थे। यह एक ऐसा समय था जब हम श्रीमानजी से थोड़ा हँसी-मजाक करते और श्रीमानजी भी सोते-सोते उसका आनंद लेते। श्रीमानजी नारायण मुद्रा में लेटे होते, कोई श्रीमानजी का पैर दबाता और बाकी बच्चे वहाँ बैठकर ठिठोली करते। माताजी पास में ही बैठकर इन सब बातों में रस लेती थी।

यह बात तबकी है, जब विपुलजी (२३७) पंचम वर्ष में थे (मुझे नेतरहाट के दिनों का समय इसी तरह याद है)। विपुलजी, राहुल, विकास और मैं (शायद अमित हेम्ब्रम भी) खाने के बाद श्रीमानजी के पास आकर बैठ गए। विपुलजी थोड़ा ढींठ प्रवृति के थे और थोड़ा पंचमवर्ष का नशा था। और उसीसमय नए-नए रेशनल भी बने थे, हमेशा तर्क की तलवार भाँजते हुए, यहाँ-वहाँ विचरण करते थे। उन्होंने श्रीमानजी से कहा, "कोई भूत-वूत नहीं होता है।"

श्रीमानजी ने उत्तर दिया, "बेटा, भूत खूब होता है।"

विपुलजी ने डिस्कवरी चैनल का हवाला देकर कहा कि यह सब व्यर्थ की बातें हैं। भूत की बात सुनकर, डिस्कवरी वाले कहीं भी अपना बोरिया-बिस्तरा लेकर पहुँच जाते हैं और हर जगह उन्होंने यहीं सिद्ध किया कि "यह भूत नहीं, कुछ और ही है"। विपुलजी को हममें से १-२ का समर्थन भी मिलने लगा।

जब विपुलजी नहीं रुके तो श्रीमानजी को क्रोध आने लगा। उन्होंने कहा कि अभी सिद्ध किए देते हैं।

तुम जाकर कागज के कुछ पुर्जे बनाओ और उनमें एक-एक शब्द लिख कर, उसे अच्छी तरह मोड़कर लाओ। पुर्जा लिखने का काम राहुल को दिया गया, वे दौड़कर आश्रम में गए और पर्ची बनाकर ले आए।

अब श्रीमानजी पालथी मारकर बैठ गए। पर्ची को अपने सामने रखने को कहा और हमें थोड़ा दूर हटने को। श्रीमानजी का चेहरा रक्तवर्णी हुआ और अचानक माहौल गंभीर हों गया । वे एक-एक पर्ची मुँह में रखते गए और उसमें क्या लिखा है यह बताते गए।

दूसरी घटना एक साल बाद की है, जब हमलोग पंचम वर्ष में थे। उससमय हर्षजी (६३२) श्रीमानजी से मिलने आये । हर्षजी मेरे प्रथम वर्ष में पंचम वर्ष में थे और उन्होंने हमारे मन में एक लीजेंड वाली छवि बना रखी थी। अपने पंचम वर्ष में भी उनके सामने हम बच्चे ही थे , लेकिन हर्षजी अबकी मित्रवत मिले और खूब सारी कहानियाँ सुनाई, जिसमें एक भूत की भी कहानी थी।

हर्षजी की सेना में जाने की प्रबल इच्छा थी और श्रीमानजी ने यह भविष्यवाणी की कि वे सेना में ही जायेंगे । हर्षजी ने NDA की परीक्षा दी लेकिन उसके मेडिकल टेस्ट में उँगली की एक चोट के कारण छँट गए (हर्षजी की उँगली नेतरहाट के एक क्रिकेट मैच के दौरान अति उत्साहित फील्डिंग के कारण टूटी थी)। हर्षजी दुखी हुए। DU से ग्रेजुएशन किया और फिर से CDS के लिए आवेदन दिया और इसबार उनका चयन हुआ। वे इसमें श्रीमानजी का आशीर्वाद मानते थे और इसलिए सेना ज्वाइन करने से पहले श्रीमानजी से आशीर्वाद लेने नेतरहाट आये थे।

एकबार हर्षजी और अनीशजी ने श्रीमानजी से भूत देखने की जिद की । श्रीमानजी पहले तो मना करते रहे, लेकिन जब उन्होंने जिद नहीं छोड़ी तो श्रीमानजी ने कहा, "गौतम आश्रम के पीछे चले जाओ।" ये दोनों अपनी मस्ती में वहाँ गए और अचानक भूतजी वहाँ प्रकट हुए । हर्षजी के अनुसार उन्होंने अपना होश तो बचाए रखा, परन्तु अनीशजी अति भयभीत होकर वहीं बेहोश हो गए। उन्हें टाँग-टूँग कर वापस लाना पड़ा। मैंने कहानी सुनने के बाद, हर्षजी से पूछा कि यह भूत दिखने में कैसा था? हर्षजी का जवाब था कि वे इसे एक्सप्लेन नहीं कर पाएँगे।

अगले साल कि एक और है, हमारे १० के परीक्षा की तिथि बढ़ती ही जा रही थी। मैंने अपने समय में प्रायः यह देखा कि पहले परीक्षा की डेट्स आती थी फरवरी में, फिर किसी कारण से वह बढ़कर मार्च में जाती थी, फिर अप्रैल और अंत में मई या जून तक ही एग्जाम हो पता था। हमारी भी परीक्षा की डेट्स २-३ दफे बढ़ी और फिर मई में एक तिथि पर आकर ठहर गयी। नेतरहाट का पंचम वर्ष अंतिम समय था, एग्जाम के तैयारी के लिए कक्षाएँ बंद हो गई थी और हम पर आनंद की वर्षा हो रही थी । हमारी यह इच्छा थी कि ये डेट भी बढ़ जाए।

हम, गौतम और शांति आश्रम वाले, इस अनुरोध के साथ श्रीमानजी के पास गए कि वे जरा इसकी भविष्यवाणी करें कि एग्जाम इसी डेट पर होगा या फिर बढ़ेगा।

श्रीमानजी ने कहा कि अपने प्रश्न को एक कागज पर लिख कर उनके पूजाघर में रख दे और बाहर आकर उनके आदेश की प्रतीक्षा करें। परिमल राजहंस को यह कार्य सौंपा गया और हम श्रीमानजी के पास ही बैठे रहे। परिमल ने प्रश्न तैयार किया, पूजागृह में रखा और बाहर प्रतीक्षा करने लगे। थोड़ी देर में श्रीमानजी ने परिमल को कागज लेकर आने को कहा। इतनी ही देर में, भूत कागज में उत्तर लिख कर अदृश्य हो गया था । श्रीमानजी ने कागज देखा और भविष्यवाणी की कि परीक्षा इसी डेट पर होगी। उनकी भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुयी।

श्रीमानजी हमलोग के मजे भी खूब लेते थे। मजे लेते समय उनके चहरे पर एक खास तरह की मंद हास्य लकीरें होती और हम समझ जाते कि आज श्रीमानजी का मन अति प्रसन्न है। कभी-कभी हम श्रीमानजी से कहानी सुनने पहुँच जाते। ऐसे ही एक मौके पर उन्होंने अपनी कहानी सुनाई थी (मुझे अब संदेह होता है कि यह सच में उनकी कहानी है या बस हमारे मजे लेने के लिए उन्होंने यूंही कुछ सुना दिया)। उन्होंने जो कहानी सुनाई थी, उसका साराँश कुछ ऐसा है -

श्रीमानजी अपने बचपने में घर से भागकर तपस्याहेतु हिमालय पर गए। अभी ठीक से तपस्या भी नहीं हुई कि किसी सिद्ध ने उन्हें त्रिशूल लेकर खदेड़ा। श्रीमानजी ने भागने का प्रयास किया, लेकिन अंततः पकड़े गए। उस सिद्ध ने उन्हें थोड़ी-बहुत सिद्धि दी और समझाया कि तुम्हारे जीवन में अभी तपस्या नहीं है, अभी तो तुम्हारा राजयोग है।

कहानी खत्म होने पर हमने आश्चर्य से पूछा, "श्रीमानजी राजसुख तो मिला नहीं।"

श्रीमानजी ने अपने सिग्नेचर अंदाज़ में स्मित हास्य के साथ उत्तर दिया, "तो फिर ये क्या है?"

श्रीमानजी गाने-बजाने के भी शौक़ीन थे। हम कई बार, श्रीमानजी की ओर से निमंत्रण देकर, दिवाकरजी और भानुजी को आश्रम में बुलाते और फिर गानों की एक महफिल जमती। मुझे जैसा याद आता है, अंशुमानजी को भी हमने एक-दो दफे गाने के लिए आमंत्रित किया था।

श्रीमानजी स्वयं भी अच्छा हारमुनियम बजाते थे और अगर उनका मन प्रसन्न हो तो आश्रम में भी प्रोग्राम होता था । कई बार तो हमारे विनयपूर्ण अनुरोध पर भी श्रीमानजी ने ३-४ गाने सुनाये। ऐसे ही एक मौके पर, पंचम वर्ष के एक धृष्ट बालक ने उनसे हारमुनियम पर "रूक-रूक-रूक, अरे बाबा रूक" सुनाने का अनुरोध कर डाला। श्रीमानजी ने भी अनुरोध के रक्षार्थ एक-दो पंक्तियॉं गाकर सुनाई।

श्रीमानजी मैथिली परंपरा एक उत्तम मेजबान थे और पान उनकी खास पहचान। उनके अतिथि प्रायः विद्यार्थियों के अभिभावक थे। सबकी बातों को पूरी तन्मयता के साथ सुनना और अपनी बातों को मधुर तरीके से रखने का उनका एक निराला अंदाज था। माताजी छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखती थीं। कोई भी अभिभावक उनके साथ घर जैसा ही महसूस करते। एक बार कोई उनका अतिथि बना तो वह तमाम उम्र उनसे जुड़ गया।

हमारे मन में यह धारणा हमेशा रही कि हम कुछ भी करें, श्रीमानजी के रहते हमें कुछ नहीं होगा। आज अचानक उनका हमारे बीच में नहीं होना बहुत खलता है। मैं कतिपय कारणों से नेतरहाट से निकलने के बाद श्रीमानजी और माताजी के साथ प्रायः संपर्क में नहीं रह सका, यह बात अब दिल को कचोटती है। यह विश्वास करना ही कठिन है कि अब श्रीमानजी हमारे बीच नहीं हैं। कोशिश करूँगा कि माताजी से मिलकर कुछ बातें कर संकू।

यह यादें मैंने अपने पितृतुल्य श्रीमानजी के लिए लिखी हैं। यह कदाचित संभव है कि इसकी कई बातें थोड़ी अटपटी सी जान पड़े । परन्तु एक बालमन ने जैसा देखा और जैसा विश्वास किया, उसे यादों के सहारे यहाँ उतारा है।

मेरा यह अनुरोध है कि इसे पढ़ते वक्त उस श्रद्धा का ध्यान रखें।

Vinit Kumar , Batch 1995-1999 , Gautam Ashram 

 

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