पहली जून को मुझे होना तो चाहिये था, समगोत्रियों के साथ कानपुर में गुरु माता निर्मल कांति और गुरु डा० मिथिलेश कांति जी के पास। मगर मजबूरी है, पाताल में अटका हुआ हूँ। निर्धारित तिथि पर न आ पारऊँगा, फिर भी विलम्ब से ही सही, आशीर्वाद लेने आऊँगा तो जरूर। तिथि का अभी तक पक्का पता नहीं, अत: अतिथि बन कर ही धमकूँगा |
मेरे शगल बस गिनती के हैं। लिखना उन्हीं में से एक है| वक्त की कमी के चलते पेंटिंग, कारपेन्ट्री, फ़ोटोग्राफ़ी, वकालत, घुम्मकड़ी वगैरह में से कुछ भी नहीं हो पाता फिर भी त्रिखने के लिये वक्त निकल ही आता है। वजह यही कि लिखना इनमें सबसे आसान है। लगभग उतना ही आसान जितना जहाज उड़ाना। ' आलस्यम् परमं॑ सुखम् ” में मेरी आस्था है और आसान काम ढूँढ निकालने में मेरा मुक़ाबला नहीं। निबंध के लिये बस विषय मिलने की देर होती है और मैं शुरू हो जाता हूँ।
सात्र रहा होगा 1962 जब हमें पढ़ना- लिखना सिखाने का कठिन कार्यभार श्रीमान मिथिलेश कांति जी को सौंपा गया। हर सप्ताह दो गृहकार्य मिलते थे। दो बार कॉपी श्रीमान जी के घर तक आती-जाती थी और इतने में अगला सप्ताह बिना विलम्ब के फिर से आधमकता था। निबंधों की अधिकतम सीमा तीन पृष्ठों की होती थी। मैंने कई बार मिन्नत की कि निबन्ध को सीमा में न बाँधा जाये। जवाब मिला कि निबन्ध का तो मतत्रब ही होता है 'बँधा हुआ'। रविवार को छात्रों और शिक्षकों के बीच फुटबॉल मैच हुआ था। फौरवार्ड से दर साहब भी खेल रहे थे। शिक्षक मात्र नौ गोल से हारे। भरपूर मनोरंजन रहा। अगले दिन श्रीमानजी ने इसे ही गृहकार्य वाले निबंध का विषय बना दिया। बोरियत से बचने के लिये मैंने कुछ नये अंदाज में लिखने का सोचा। हिम्मत दिखाने की कोशिश की। वैसे भी कौन सी फाँसी लगने का ख़तरा था? दो दिन बाद कॉपी वापस मिली। श्रीमानजी बारी-बारी से नाम पुकारते और मूल्यांकन बताते जाते थे। हम टेबल तक जा कर अपनी कॉपी ले आते थे। सबको 'क' या 'ख मिल्रा था। मेरी बारी आई - मैंने ही नहीं औरों ने भी सुना “ शंभु, ग+“ साथ में टिप्पणी भी थी “लिखावट सुधारें, वर्तनी पर ध्यान दें ”। मै टेबल के पास से हाथ में कॉपी और कंधे पर सर लटकाये सीट की ओर लौटा। तभी पीछे से श्रीमान जी ने टोका “ शंभु , माता जी को आपका निबंध अच्छा लगा।” मुझे ख़ुशी हुई और क्लास को आश्चर्य कि इस ग+ वाले होमवर्क की पहुँच माता जी तक कैसे हुई? क्लास की माँग और श्रीमान जी की अनुमति पर मैंने निबंध को पढ़ कर सुनाया। तालियाँ बर्जी और तय हुआ कि अगले कवि सम्मेलन में इसे असेम्बली में भी सुनाया जाये। पहली दफा कविताओं के बीच निबंध को भी प्रतिष्ठा मिली। तारीख़ गवाह है कि उसी महामहेन्द्र क्षण वाले मुहूर्त में एक अधकचरा लेखक पैदा हो गया। प्रोत्साहन की ताक़त को व्यक्तिगत तौर पर महसूस कर पाया लेकिन कीर्तिमान के उत्तरदायित्व का स्वाद भी उसी कच्ची उमर में लग गया। हर अगले लेख को पिछले से बेहतर बना पाने का झंझट सँभालना कितना कठिन होता है, यह भी समझ में आ गया।
आज छप्पन साल बाद भी ” माता जी को आपका निबंध अच्छा ल्रगा “ वाली टिप्पणी ही वह वजह है जिसके चलते मैं लिखता हूँ, मिटाता हूँ, दुबारा कोशिश करता हूँ, आतुरता दिखाता हूँ, कतराता हूँ, हिम्मत करता हूँ, घबराता हूँ और हर बार यही सोच कर मायूस सा हो जाता हूँ कि पता नहीं माताजी को यह निबंध कैसा लगेगा? क्योंकि श्रीमानजी की कंजूसी से तो मैं भली-भाँति वाक़िफ़ हूँ ही । आज भी ग+ से ऊपर मिलने से रहा। माता जी ने एक बार कहा था कि “तुम्हारी शैली में प्रवाह है, बिना रुके पढ़ना पड़ता है।“ बस फिर से हो गया झंझट। जब एक साँस में लिख लेता हूँ तभी एक साँस में पढ़ने लायक बना पाता हूँ पकते समय जितना मसाला पड़ गया, स्वाद बस उतने का ही आ पाता है। ऊपर से कुछ मिलाने की कोशिश करूँ तो घुल्नता नहीं। न प्रवाह, न मिठास, न कुछ और। लाख कोशिश करूँ, हर बार एक जैसा कहाँ बन पाता? वैसे भी वो कहते हैं न कि ' राग, रसोइया, पागड़ी, कभी-कभी बन जात।'
स्कूल क्या छूटा, पढ़ाई से रिश्ता ही टूट गया। वैसे जब स्कूल में था तब भी किताबों से छत्तीस का ही आँकड़ा था। एयर फ़ोर्स के सपने के टूटने के बाद खुद में बिखर सा गया। लगा प्रशांत महासागर के ठीक बीच में फेक दिया गया हूँ। जिंदगी में एक से एक गैरज़िम्मेदारों से वास्ता पड़ा मगर खुद से ज़्यादा गैरज़िम्मेदार दूसरा न मिलरा। कॉलेज का मैं अकेला होनहार था जिसे किताबों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। सच कहूँ तो अपने पास किताबें थीं ही कहाँ? कभी कोई तस्वीर बना लेता था। कभी नदी किनारे अकेले बैठ बाँसुरी पर कोई धुन निकालने की कोशिश करता था। कभी साइकिल लेकर अनजान गत्नियों में बेवजह भटकता फिरता था। कभी किसी अज़ीज़ दोस्त के नाम खत या डायरी के पन्नों के रूप में कुछ अलग सा लिखने की कोशिश कर लेता था।
अमीर घरों के बिगड़े नवाबजादों के जुटने की एक मात्र शरणास्थली यानी फ्लाइंग क्लब में मैं भी दाख़िल हो गया। फ़र्क सिर्फ़ इतना कि न मैं अमीर था न अमीरजादा। पायलट बनने और नौकरी पाने के मुश्किल सफ़र को तय करने के लिए बहुत सारी चीज़ों का साथ होना ज़रूरी होता है। मगर अपने पास जिद के सिवा था ही क्या? लंबे इंतज़ार के बाद नौकरी पाने की उम्र निकलने से चंद रोज पहले एयरलाइंस की नौकरी मिली। शादी करने की उम्र निकलती जा रही थी तब जाकर शादी हुई । अदालत वाली शादी। न पंडित, न भोज- भात, न बैंड बाजा, न बारात। शादी के तुरंत बाद कहीं घूमने जाने का रिवाज़ होता है। रस्म अदायगी के लिए ही सही कहीं न कहीं हमें भी जाना था और हम दोनो बस में बैठ कर नेतरहाट पहुँच गये। सामान डाक बँगले में डाल, पैदल निकल पड़े। साल 81, मार्च महीना, शाम का वक्त, थका माँदा, शैले के पास खड़ा, हैरान सा उस अजनबी सी जगह को देखता रहा जो कभी अपने घर से भी ज़्यादा खुद के करीब था। किसी से पूछा कि आज कलत्र प्राचार्य कौन हैं? जवाब मित्रा डॉक्टर मिथिल्रेश कांति और अगले क्षण हम दोनों उसी अधिकार से शैले में घुस रहे थे मानो अपने ही पुश्तैनी मकान में प्रवेश कर रहे हों। माता जी और श्रीमान जी हमें सत्रह साल्र बाद देख रहे थे, बिना नाम बताये पहचान नहीं पाये। श्रीमान जी ने पूछा कि शादी कब हुई? और मेरे यह बताने पर कि ” जी, पिछले सोमवार के दिन ” उन्होंने भावार्थ की व्याख्या करते हुये कहा कि ” तो सीधे -सीधे कहो नकि हनीमून पर आये हो।"
सुबह हम दोनों सम्मेलन कक्ष में मंच की कुर्सियों परबैठे थे। काफी अजीब सा त्रग रहा था। नपे-तुले शब्दों में श्रीमानजी द्वारा भरी असेम्बली से कराया गया हमारा परिचय आज भी याद है। “ ये पंचम बैच के शंभु हैं और उनके साथ हैं उनकी नवविवाहिता पत्नी उमा। शंभु इंडियन एयरलाईस में पायलट हैं और इस नाते उन्हें परिवार सहित विश्व में कहीं भी आने-जाने के लिये मुफ़्त हवाई यात्रा के टिकट की सुविधा मित्रती है और वे चाहते तो स्वीजरलैंड या कहीं और भी जा सकते थे। फिर भी अपने हनीमून पर इन दोनों ने नेतरहाट आने का निर्णय लिया।*“ स्कूल के प्रति इस लगाव के बारे में अगर अब भी कुछ कहने को बच जाता हो तो मैं आगे भी कुछ कहता।” तालियों की गूँज से हमारा स्वागत हुआ और चंद रोज बाद हम वापस लौट आये। वक्त बीतता गया। अब हम एयर बस 320 के कप्तान थे। जिंदगी दिनचर्या बन कर रह गई थी। सप्ताह में केवल एक दिन छुट्टी मिलती थी जो खुद को हैलो कह पाने के लिये भी कम पड़ता था। मशीन सी जिंदगी में हर सुबह अनमना सा उठता और हर रात कटे पेड़ की तरह बिस्तरे पर गिर जाता था। मध्य रात्रि में या अहले सुबह अलार्म से जगने पर याद करना पड़ता था कि आज किस देश के किस शहर के किस होटल में हूँ? ख़ुशक़िस्मती से कभी- कभार डे रिटर्न फ़्लाइट मित्र जाती थी तो बाल -बच्चों के साथ बैठ पाना नसीब होता था। एक ऐसे ही दिन राँची से टेक ऑफ करते समय रनवे छोड़ने से कुछ सेकेंड पहले जहाज के दाहिने एंजिन में आग लग गई। जहाज रोका, आग बुझाई और रनवे से वापस लौटा। अगले दिन हम अखबारी ख़बरों में थे कि पायलट की सूझ-बूझ से राज्यपाल और मुख्यमंत्री सहित सारे यात्री बाल-बाल बचे। तीन दिनों तक हमें इस उम्मीद में वहीं रुकना पड़ा कि क्या पता शायद नया इंजन कभी भी आ जाये। पता लगा श्रीमानजी वहीं कहीं पास में ही रहते हैं। संपर्क में आते ही आशीर्वाद लेने धमक गया। माताजी के हाथों बने भोजन को कौन छोड़ता? बस एक मामूली समस्या थी। अगले सप्ताह मेडिकल था और कम से कम तीन किल्रो वज़न कम करना था। जेनरल मोटर्स वाले डायट चार्ट का तीसरा या चौथा दिन रहा होगा। अन्न, चिकनाई और मिठाई सर्वथा वर्जित और केवल स्टीम्ड सब्ज़ी, अंकुरित दाल, सलाद वगैरह खाना था। माता जी ने डट कर बनाया और मैंने जम कर खाया। मैं जब आशीर्वाद लेकर होटल लौटने को हुआ तो माता जी ने अपने दिन भर की थकावट को एक वाक्य वाली टिप्पणी से मुझ तक जतला दिया कि “ बेटे, तुम्हारे वज़न के घटने का तो नहीं पता, लेकिन तुम्हारे फ़रमाइशी मेन्यू के चक्कर में मेरा तीन किलो वज़न जरूर कम हो गया होगा।”
श्रीमान जी ने हमें केवल एक साल पढ़ाया था। तो क्या? एकलव्य को तो उसके गुरु द्रोण ने एक दिन भी नहीं पढ़ाया। रिटायरमेंट के पास आकर मेरी क़िस्मत ने, मुझे फिर से गुरु चरणों तक पहुँचा दिया। मैं तो महज दिल्ली से गुड़गाँव आया, श्रीमान जी दूर राँची से गुड़गाँव आ गये। ज़रें नसीब का मतलब समझ में आ गया। कोई बेटा कह कर पुकारने वाला मिल जाये तो मैं अक्सर अपनी उमर भूल जाता हूँ। भूल जाता हूँ कि मैं रिटायर्ड हूँ। भू जाता हूँ कि मैं अब खुद को वेदान्ती कहता हूँ और अब महत्वाकांक्षाएँ फैलाने की नहीं, बल्कि समेटने की उमर हो गई। गुरु को पास पा कर एक बार फिर से लिखना सीखने की ललक लग गई | श्रीमान जी अक्सर फोन पर याद दिलाते रहते थे कि बेटे रोज थोड़ा लिख लिया करो। पद्य लिखने के लिये सुबह और गद्य के लिये शाम का समय ठीक रहेगा। साथ में पेंटिंग बनाते रहने की याद जरूर दिलाते थे। कभी-कभी झुंझला कर कहते कि तुम कहाँ ये वकालत के फालतू चक््करों में फँस गये। बातचीत के दौरान ही पता चला कि उनके पास लॉ डिग्री भी है। उसी दिन पता चला कि उन्होंने फ़िज़िक्स - केमिस्ट्री जैसे विषयों में बी एस सी किया था।उनका परिचय परतों में ही खुलता रहा। कभी शोध कार्य के सित्रसिले में मथुरा वृंदावन के साधुओं के संग भी रह आये थे। एक बार दाहिने हाथ में प्लास्टर त्रगा तो बाँये हाथ से भी लिखने लगे। पठार इन्हें सब्यसांची पुकारता था। इन्हें हम किताब पढ़ते हुये सड़क पर पैदल चलते हुये देखते थे। इनका पूरा परिचय पाना कठिन है।
एक दिन नोबा राँची की पत्रिका लेकर मैं इनके पास गया। उसमें एक लेख मेरा भी था। बोले ठीक है, रख दो पढ़ कर बाद में बताऊँगा। अगले सप्ताह फोन आया “ मैंने पढ़ कर अपनी टिप्पणी दे दी है, आकर ले जाओ।” बचपन के दिन याद आ गये। दो जगह अंडरलाइन किया था और हाशिये पर * सुंदर “ लिखा था। मज़ा आ गया। अब अगर मैं कभी-कभार अपने बुढ़ापे को भूल बचकानी हरकतें करने लग जाता हूँ तो भला इस में मेरा क्या क़सूर। सूचना तकनीक का ज़माना है। मदद के ल्रिये गूगल से लेकर विकीपीडिया तक में सूचनाएँ बिखरी पड़ी हैं। मगर ज्ञान के लिए तो बस गिनती के उपनिषदों का ही आसरा बचता है। उपनिषद का शब्दार्थ होता है ' क़रीब बैठना !| जब भी श्रीमान जी के पास कुछ क्षण बैठ पाने का मौक़ा मिल जाता है कोई गुर, कोई ज्ञान, एक नया धम्म, एक नया उपनिषद सम्हात्र ही लेता हूँ। । एक दिन उन्होंने हौले से कहा ' लिखने के बाद फिर से पढ़ो और अपने ही लेख से कोई एक शब्द ऐसे चुरा लो कि किसी को पता न चले।' मैं आज भी कोशिश में त्रगा हुआ हूँ मगर बूढ़ा सुग्गा पोस जो नहीं मानता। तभी अचानक मेरे नसीब को जाने किसकी नज़र लग गई। श्रीमान जी और माताजी ने अचानक गुरुग्राम छोड़ कानपुर जाने का निर्णय कर त्रिया। बड़ी मुश्किल से गुडगाँव को गुरुग्राम बनाया था एक झटके में शहर फिर से गुड़गाँव बन गया। लिखना सीखने की सारी योजनायें धरी की धरी रह गईं। मैं अभागा वहीं का वहीं रह गया। गुरुग्राम आने वाले नोबा सदस्यों के लिए एक बार गुरु की चौकट तक आ कर मत्था टेकना तय ही होता था। इधर ख़बर फैल गई थी कि गुरुद्वारे का पता इस नाचीज़ के पासे ही था। मै तीर्थ यात्रियों का पंडा, ग्रंथी या महंत न सही, गाइड तो बन ही गया था। शिष्यों का ताँता लगा रहता था और भीड़ घटने का नाम ही नहीं लेती थी। माता जी भल्रे ही न मानें, दिक़क़त तो उन्हें होती थी और मैं ख़ुद की नज़र में क़सूरवार सा दिखता था। अब मैं इस इयूटी से बहाना बनाने और कतराने सा लगा था। पर गुरू ने गुरुग्राम क्या छोड़ा हमें बेरोज़गार कर दिया। शहर छोड़ने से महज एक दिन पहले हमें बुलाया। अंदर वाले कमरे में बिस्तरे के ऊपर ढेर सारी किताबें पड़ी थीं। मुझसे कहा गया कि मैं जितना उठा सकता हूँ उठा लूँ। संकोचवश कुछ ही उठा पाया। वेवक़्त के संकोच पर आज तक अफ़सोस है। अचानक सब ख़त्म हो गया। 'अप्प दीपा विहरथ' बोल गुरु कहीं और विहरने को निकल पड़े। कानपुर से पिछली बार फ़ोन पर बता रहे थे कि उनकी बालकनी में एक बुलबुल हर रोज़ बिला नागा सुबह-सुबह हाज़िरी दे जाती है। मैं समझ गया उनके शक की सूई किधर इशारा कर रही थी। उनके सारे शिष्यों में फ्लाइंग का लाइसेंस तो केवल मेरे ही पास है। माता जी ने कई बार कहा कि मैं अपने निबंधों का संग्रह अब छपबा ही डालूँ। मैंने भी संकल्प किया कि अब किताब के साथ ही कानपुर जाऊँगा। मगर एक अड़चन है। बचपन में मैंने अपने पिता जी की तस्वीर बनाई थी । पूरे गाँव में उस पेंसित्र स्केच की तारीफ हुई लेकिन जिनकी तस्वीर थी खुद उन्होंने कुछ खास नहीं कहा, हाँ किसी कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर' का एक निबंध संग्रह पढ़ने को दिया और कहा कि किताब चाहे न भी पढ़ो मगर भूमिका जरूर पढ़ लेना। भूमिका में लिखा था कि लेखक कैसे अपनी रचनाओं को पत्रिकाओं में छपने के लिये भेजते थे और कैसे उन्हें हर बार निराशा हाथ लगती थी।एक दिन अकबर इलाहाबादी जी का एक शेर लेखक के हाथ ल्रग गया -
“लगी चहकने जहाँ भी बुलबुल,
हुआ वहीं पर जमाल पैदा,
कमी नहीं कद्रदाँ की (अकबर,
करे तो कोई कमाल पैदा।
प्रभाकर जी ने संपादकों को लेख भेजना छोड़ दिया। लेख लिखते रहे और टेबल के दूसरी तरफ वाली कुर्सी पर बैठ संपादक की नज़र से अपने ही लेखों को जाँचते और हर बार लाल स्याही से ' छपने योग्य नहीं! लिखकर उन्हे कचरे की टोकरी में फैंकते रहे। कुछ दिन बाद उनके एक क़रीबी मित्र किसी पत्रिका के साथ उनके घर आये। पत्रिका में उनका एक लेख छपा था जिसे मित्र ने उनकी अनुपस्थिति में कचरे से निकाल संपादक के पास भेज दिया था। मैं अपने पिता की सांकेतिक भाषा से भलीभाँति परिचित था। आज साठ साल बाद भी अकबर इलाहाबादी के उस शेर ने मुझे कभी चैन की नींद सोने नहीं दिया। श्रीमान जी भी इलाहाबादी हैं। अब माता जी को कैसे बताऊँ कि मैं तो आज साठ साल बाद भी अपनी कल्रम से कमाल पैदा करने की कोशिश में ही लगा रह गया। पिता जी नहीं रहे मगर आज भी उनकी लाल कलम से अपने लेखों के हाशिये पर “ छपने योग्य नहीं “ की टिप्पणी ही लिखा पाता हूँ। देखना है कब तक किताब के साथ कानपुर पहुँच पाता हूँ।
मैंने किसी से कुछ भी माँगना कब का छोड़ दिया फिर भी आदेश न सही, सुझाव तो दे ही सकता हूँ। । अगर कभी ईश्वर यूँ ही, सरे राह चलते मित्र जायें तो कहूँगा कि अपने पास आप का ही दिया, सब कुछ है। मुझे खुद के लिये तो कुछ भी नहीं चाहिये। बस केवल इस बात का ख़यात्र रखें कि गुरु माँ और गुरुदेव कयामत तक सलामत रहें। उनके आशीर्वादों की बारिश बिना थमें हर मौसम में झमाझम होती रहे। उसी फुहार में भीगता मेरा बचपना मुझ में बरकरार रहे और मैं यूँही 'बलिहारी गुरु आपनो” गाता गुनगुनाता रहूँ ।
- शंभु प्रसाद सिन्हा
कौटिल्य बुक्स से साभार